कनकलता बरुआ की अमर गाथा - 17 साल की वीरांगना जिसने तिरंगे के लिए दी जान | शहीद स्वतंत्रता सेनानी की सच्ची कहानी 2024
संघर्ष - एक अमर गाथा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कनकलता बरुआ का नाम 17 साल की उम्र में शहीद होने वाली सबसे कम उम्र की वीरांगना के रूप में स्वर्णाक्षरों में लिखा है। 20 सितंबर 1942 को गोहपुर पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली यह असम की बेटी आज भी हर भारतीय के हृदय में प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। उनकी वीरगाथा केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि युवा शक्ति और महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है।
Young Kanaklata Barua leading freedom fighters with tricolor flag in 1942
बचपन से ही दिखी वीरता - एक असाधारण व्यक्तित्व
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक संघर्ष
22 दिसंबर 1924 को असम के सोनितपुर जिले के बारंगाबाड़ी गांव में जन्मी कनकलता बरुआ का जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा था। कृष्णकांत बरुआ और कर्णेश्वरी बरुआ की इस बेटी को मात्र 5 साल की उम्र में मां का प्यार छिन गया। पिता ने दूसरा विवाह किया, लेकिन जब कनकलता 13 साल की हुई तो पिता भी चल बसे।
कनकलता के दादा घन कांत बरुआ असम के प्रसिद्ध शिकारी थे और उनके पूर्वज दोलाकाशारिया बरुआ साम्राज्य से संबंधित थे। परिवार की यह वीरता और स्वाभिमान की परंपरा कनकलता के व्यक्तित्व में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।
शिक्षा और जीवन की चुनौतियां
आर्थिक परेशानियों और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण कनकलता को तीसरी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उन्हें छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी उठानी पड़ी और सौतेली मां के साथ रहना पड़ा। इन कठिनाइयों के बावजूद कनकलता के मन में राष्ट्रप्रेम की भावना मजबूत होती गई।
Vintage sepia photo of a traditional Assamese village street in Guwahati, 1940s
भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी
मृत्यु बाहिनी में शामिली - एक निडर फैसला
1942 में जब महात्मा गांधी ने 'करो या मरो' का नारा दिया, तो असम में भी स्वतंत्रता संग्राम तेज हो गया। पुष्पलता दास के नेतृत्व में मृत्यु बाहिनी का गठन हुआ था। यह एक डेथ स्क्वाड था जिसके सदस्य गांधी जी के आह्वान पर अपनी जान देने को तैयार थे।
कनकलता पहले आजाद हिंद फौज में शामिल होना चाहती थी, लेकिन 17 साल से कम उम्र होने के कारण उन्हें मना कर दिया गया। इस निराशा ने उन्हें और भी दृढ़ संकल्पित बना दिया और अंततः उन्हें मृत्यु बाहिनी में सदस्यता मिल गई। उनकी देशभक्ति और साहस को देखकर उन्हें महिला कैडर की नेता बनाया गया।
ज्योति प्रसाद अग्रवाल का प्रभाव
प्रसिद्ध असमिया सांस्कृतिक व्यक्तित्व ज्योति प्रसाद अग्रवाल के भाषणों और गीतों से कनकलता बहुत प्रभावित हुई। उन्होंने ही तेजपुर जिले में क्रांतिकारियों का शिविर स्थापित किया था जो कनकलता के घर से मात्र 8 किमी दूर था। यहीं से कनकलता की राष्ट्रीयता की यात्रा शुरू हुई।
A historical procession in Bangalore during the Quit India Movement in 1942
20 सितंबर 1942 - इतिहास का वह अमर दिन
गोहपुर पुलिस स्टेशन का मिशन
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान असम प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने 'शांति बाहिनी' की स्थापना की थी जिसके लगभग 20,000 सदस्य थे। ज्योति प्रसाद अग्रवाल के निर्देश पर तय हुआ कि तेजपुर जिले के पुलिस स्टेशनों पर शांतिपूर्वक तिरंगा फहराया जाएगा। गोहपुर पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने की जिम्मेदारी कनकलता बरुआ को दी गई।
वह ऐतिहासिक सुबह
20 सितंबर 1942 की सुबह, निहत्थे ग्रामीणों का एक विशाल जुलूस 'भारत माता की जय' के नारों के साथ गोहपुर पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ा। तिरंगा हाथ में लिए 17 वर्षीय कनकलता इस जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। जुलूस में लगभग 5,000 लोग शामिल थे।
जब जुलूस पुलिस स्टेशन के पास पहुंचा, तो पुलिस अधिकारी रेबती महान सोम ने चेतावनी दी कि "एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे"। कनकलता ने निडरता से जवाब दिया: "आप अपना कर्तव्य कीजिए, मैं अपना करूंगी"। उन्होंने कहा: "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें?"
Kanaklata Barua's final moment facing British police at Gohpur station
अंतिम क्षण - शहादत की अमर गाथा
जब जुलूस आगे बढ़ता रहा, तो पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। कनकलता बरुआ को पहली गोली सीने में लगी लेकिन उन्होंने तिरंगा गिरने नहीं दिया। जब वे गिर पड़ीं, तो मुकुंद काकोती ने झंडा संभाला और वे भी तुरंत शहीद हो गए। अंततः राम पति राजखोवा ने पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराया।
कनकलता की मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र 17 साल, 8 महीने और 29 दिन थी। उनकी शहादत ने पूरे असम में स्वतंत्रता संग्राम की नई लहर दौड़ा दी।
कनकलता बरुआ की अमर विरासत
सम्मान और स्मारक
कनकलता बरुआ को मरणोपरांत 'बीरबाला', 'शहीद' और 'वीरांगना' की उपाधियां दी गईं। भारत सरकार ने उनके सम्मान में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए:
1997 में भारतीय तटरक्षक का एक फास्ट पेट्रोल वेसल 'ICGS कनकलता बरुआ' नाम दिया गया
2011 में गौरीपुर में जीवन-आकार की मूर्ति स्थापित की गई
2020 में एक नया तटरक्षक पोत भी उनके नाम पर कमीशन किया गया
सिनेमा और साहित्य में
कनकलता बरुआ की वीरगाथा को चंद्र मुदोई ने फिल्म "एपाह फुलिल एपाह सोरिल" में दिखाया। इस फिल्म का हिंदी संस्करण "पूरब की आवाज" नाम से भी रिलीज हुआ। उनकी कहानी असमिया साहित्य और लोकगीतों में भी अमर हो गई है।
Statue of Kanaklata Barua, the young 17-year-old freedom fighter of Assam holding a flag
आधुनिक युग में प्रासंगिकता
महिला सशक्तिकरण का प्रतीक
कनकलता बरुआ की कहानी आज भी महिला सशक्तिकरण और युवा शक्ति की प्रेरणा देती है। उन्होंने साबित कर दिया कि उम्र, लिंग या सामाजिक परिस्थितियां किसी भी व्यक्ति को देश सेवा से नहीं रोक सकतीं।
शिक्षा और जागरूकता
असम में कई स्कूल और संस्थाएं कनकलता बरुआ के नाम पर हैं। नालबाड़ी सिविल हास्पिताल को 'शहीद मुकुंद काकाती सिविल हास्पिताल' नाम दिया गया है। यह उनकी और उनके साथी मुकुंद काकोती की स्मृति को जीवित रखने का प्रयास है।
राष्ट्रीय एकता में योगदान
कनकलता बरुआ की कहानी उत्तर-पूर्व भारत के योगदान को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उत्तर-पूर्व की भागीदारी के प्रतीक हैं।
अन्य महिला वीरांगनाओं के साथ तुलना
मातंगिनी हाजरा के साथ समानताएं
मातंगिनी हाजरा भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तिरंगा लेकर जुलूस का नेतृत्व करते हुए शहीद हुई थीं। दोनों वीरांगनाओं ने 'वंदे मातरम' कहते हुए अपने प्राण त्यागे।
अरुणा आसफ अली से प्रेरणा
अरुणा आसफ अली ने गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराया था। कनकलता बरुआ भी इसी परंपरा की अगली कड़ी थीं जिन्होंने पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने का साहस किया।
निष्कर्ष - एक अमर संदेश
कनकलता बरुआ की यह अमर गाथा हमें सिखाती है कि सच्चा देशप्रेम उम्र, परिस्थितियों या सामाजिक बाधाओं को नहीं देखता। 17 साल की इस वीरांगना ने साबित कर दिया कि दृढ़ संकल्प और निष्ठा के आगे मृत्यु भी झुक जाती है।
आज जब हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, तो हमें कनकलता बरुआ जैसे अज्ञात वीर शहीदों को याद करना चाहिए जिन्होंने हमारी आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उनकी शहादत हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता उम्र में नहीं, इरादों की मजबूती में होती है।
कनकलता बरुआ का नाम इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखा है और हमेशा भारतीय नारी शक्ति का प्रतीक बना रहेगा। उनकी वीरगाथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी कि देश सेवा में कोई भी बलिदान छोटा नहीं होता।
प्रश्न और उत्तर (FAQ)
प्रश्न 1: कनकलता बरुआ कौन थी और वे क्यों प्रसिद्ध हैं?
उत्तर: कनकलता बरुआ असम की 17 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी थी जो भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गोहपुर पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने के लिए शहीद हो गईं। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे कम उम्र की वीरांगना मानी जाती हैं।
प्रश्न 2: कनकलता बरुआ की शहादत कब और कहां हुई?
उत्तर: कनकलता बरुआ की शहादत 20 सितंबर 1942 को असम के गोहपुर पुलिस स्टेशन पर हुई थी। वे तिरंगा फहराने के लिए जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं जब पुलिस की गोलीबारी में वे शहीद हो गईं।
प्रश्न 3: कनकलता बरुआ की उम्र शहादत के समय कितनी थी?
उत्तर: शहादत के समय कनकलता बरुआ की उम्र मात्र 17 साल, 8 महीने और 29 दिन थी। वे 22 दिसंबर 1924 को जन्मी थीं और 20 सितंबर 1942 को शहीद हुईं।
प्रश्न 4: मृत्यु बाहिनी क्या थी और कनकलता इसमें कैसे शामिल हुईं?
उत्तर: मृत्यु बाहिनी पुष्पलता दास के नेतृत्व में बनाई गई एक डेथ स्क्वाड थी जिसके सदस्य गांधी जी के 'करो या मरो' के आह्वान पर अपनी जान देने को तैयार थे। कनकलता को महिला कैडर की नेता बनाया गया था।
प्रश्न 5: कनकलता बरुआ को कौन से सम्मान मिले हैं?
उत्तर: कनकलता को 'बीरबाला', 'शहीद' और 'वीरांगना' की उपाधियां मिलीं। भारत सरकार ने उनके नाम पर तटरक्षक पोत बनाए, मूर्ति स्थापित की और फिल्में भी बनीं। 2020 में एक नया तटरक्षक पोत भी उनके नाम पर कमीशन किया गया।